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विकास की अवधारणा एवं इसका अधिगम से संबंध Part 1

विकास की अवधारणा एवं इसका अधिगम से संबंध

 

विकास (Development)

  • विकास एक सार्वभौमिक (Universal) प्रक्रिया है, जो जन्म से लेकर जीवनपर्यन्त तक अविराम होता रहता है। विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता बल्कि इसके अंतर्गत वे सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक परिवर्तन सम्मिलित रहते हैं जो गर्भकाल से लेकर मृत्युपर्यन्त तक निरंतर प्राणी में प्रकट होते रहते हैं।
  • विकास को क्रमिक परिवर्तनों की श्रृंखला भी कहा जाता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताओं का उदय होता है तथा पुरानी विशेषताओं की समाप्ति हो जाती है। प्रौढ़ावस्था में पहुँचकर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों से संपन्न पाता है वे विकास की प्रक्रिया के ही परिणाम होते हैं।
  • हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, “विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है वरन् वह ‘व्यवस्थित’ तथा ‘समनुगत'(Coherent Pattern) परिवर्तन है, जिसमें कि प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ व योग्यताएँ प्रकट होती हैं।”

*व्यवस्थित(Orderly) शब्द का तात्पर्य यह है कि विकास की प्रक्रिया में होनेवाले परिवर्तनों में कोई-न-कोई क्रम अवश्य होता है और आगे वाले परिवर्तन पूर्व परिवर्तन पर आधारित होता हैं।
* समनुगत(Coherent Pattern) शब्द का अर्थ है परिवर्तन संबंधविहीन नहीं होते हैं उनमें आपस में परस्पर संबंध होता हैं।

  • मुनरो (Munro) के अनुसार, “विकास परिवर्तन-श्रृंखला की वह अवस्था है जिसमें बच्चा भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहलााता हैं।”
  • विकास की प्रक्रिया में होनेवाले परिवर्तन वंशानुक्रम से प्राप्त गुणों तथा वातावरण दोनों का ही परिणाम होता है। विकास की प्रक्रिया में होनेवाले शारीरिक परिवर्तनों को आसानी से देखा जा सकता है किन्तु अन्य दिशाओं में होनेवाले परिवर्तनों को समझने में समय लग सकता है।

विकास के रूप(Forms of Development)

विकास की प्रक्रिया चार प्रकार के होते हैं-

(a) आकार में परिवर्तन(Change in Size): शारीरिक विकास-क्रम में निरंतर शरीर के आकार में परिवर्तन होता रहता है। आकार में होनेवाले परिवर्तनों को आसानी से देखा जा सकता है। शारीरिक विकास-क्रम में आयु-वृद्धि के साथ-साथ शरीर के आकार व भार में निरंतर परिवर्तन होता रहता है।

(b) अनुपात में परिवर्तन(Change in Proportion): विकास-क्रम में पहले आकारों में परिवर्तन होता है लेकिन यह परिवर्तन आनुपातिक होता है। प्राणी के शरीर के सभी अंग  विकसित नहीं होते हैं और न ही उनमें एक साथ परिपक्वता आती है। अतः सभी अंगों के विकास का एक निश्चित अनुपात नहीं होता है।

उदाहरण– शैशवावस्था में बालक स्वकेंद्रित होता है जबकि बाल्यावस्था के आते-आते वह अपने आस-पास के वातावरण तथा व्यक्तियों में रुचि लेने लगता है।

(c) पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन(Disappearance of Old Features): प्राणी  के विकास-क्रम में नवीन विशेषताओं का उदय होने से पूर्व पुरानी विशेषताओं का लोप होता रहता है।

उदाहरण– बचपन के बालों और दाँतों का समाप्त हो जाना, बचपन की अस्पष्ट ध्वनियाँ, खिसकना, घुटनों के बल चलना, रोना, चिल्लाना इत्यादि गुण समाप्त हो जाते हैं।

(d)नये गुणों की प्राप्ति(Aquisition of New Features): विकास-क्रम में जहाँ एक तरफ पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन होता है वहीं उसका स्थान नये गुण प्राप्त कर लेते  हैं। जैसे कि स्थायी दाँत निकलना, स्पष्ट उच्चारण करना, उछलना-कूदना और भागने-दौड़ने की क्षमताओं का विकास इत्यादि विकास-क्रम में नये गुण के रूप में प्राप्त होते हैं।

विकास के सिद्धांत(Principles of Development)

विकास सार्वभौमिक तथा निरंतर चलती रहनेवाली क्रिया है, लेकिन प्रत्येक प्राणी का विकास निश्चित नियमों के आधार पर ही होता है। इन नियमों के आधार पर अनेक शारीरिक व मानसिक क्रियाएँ विकसित होती रहती हैं। विकास के कुछ प्रमुख नियम निम्नलिखित हैं-

  • विकास का एक निश्चित प्रतिरूप होता है(Development follows a certain pattern): मनुष्य का शारीरिक विकास दो दिशाओं में होता है – मस्तकाधोमुखी दिशा तथा निकट दूर दिशा।
  1. मस्तकाधोमुखी विकास क्रम(Cephalocaudal Development Sequence) में शारीरिक विकास ‘सिर से पैर की ओर’ होता है। भ्रूणावस्था से लेकर बाद की सभी अवस्थाओं में विकास का यही क्रम रहता है।
  2. निकट दूर विकास क्रम(Proximodistal Development Sequence) में शारीरिक विकास पहले केंद्रीय भागों में प्रारंभ होता है तत्पश्चात केंद्र से दूर के भागों में होता है। उदाहरण के लिए पेट और धड़ में क्रियाशीलता जल्दी आती है।
  • विकास सामान्य से विशेष की ओर होता है(Development Proceeds from General to Specific): विकास-क्रम में कोई भी बालक पहले सामान्य क्रियाएँ करता है तत्पश्चात विशेष क्रियाओं की ओर अग्रसर होता है। विकास का यह नियम शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक सभी प्रकार के विकास पर लागू होता है।
  • विकास अवस्थाओं के अनुसार होता है(Development Proceeds by Stages): सामान्य रूप से देखने पर ऐसा लगता है कि बालक का विकास रुक-रुक कर हो रहा है परंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता है। उदाहरण के लिए जब बालक के दूध के दाँत निकलते हैं तो ऐसा लगता है कि एकाएक निकल आये परंतु नींव गर्भावस्था के पाँचवें माह में पड़ जाती है और 5-6 माह में आते हैं।
  • विकास में व्यक्तिगत विभेद सदैव स्थिर रहते हैं(Individual Differences Remain Constant in Development): प्रत्येक बालक की विकास दर तथा स्वरूपों में व्यक्तिगत विभिन्नता पायी जाती है। उदाहरण के लिए, जिस बालक में शारीरिक क्रियाएँ जल्दी उत्पन्न होती हैं वह शीघ्रता से बोलने भी लगता है जिससे उसके भीतर सामाजिकता का विकास तेजी से होता है। इसके विपरीत जिन बालकों के शारीरिक विकास की गति मंद होती है उनमें मानसिक तथा अन्य प्रकार का विकास भी देर से होता है। अतः प्रत्येक बालक में शारीरिक व मानसिक योग्याताओं की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। इस कारण समान आयु के दो बालक व्यवहार में समानता नहीं रखते हैं।
  • विकास की गति में तीव्रता व मंदता पायी जाती है(Development Proceeds in a Spiral Fashion): किसी भी प्राणी का विकास सदैव एक ही गति से आगे नहीं बढ़ता है, उसमें निरंतर उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। उदाहरण के लिए- विकास की अवस्था में यह गति तीव्र रहती है उसके बाद में मंद पड़ जाती है।
  • विकास में विभिन्न स्वरूप परस्पर संबंधित होते हैं(Various Forms are Inter-related in Devleopment)
  • विकास परिपक्वता और शिक्षण  का परिणाम होता है(Development Results from Maturation and Learning): बालक का विकास चाहे शारीरिक हो या मानसिक वह परिपक्वता व शिक्षण दोनों का परिणाम होता है।
  1. ‘परिपक्वता‘ से तात्पर्य व्यक्ति के वंशानुक्रम द्वारा शारीरिक गुणों का विकास है। बालक के भीतर स्वतंत्र रूप से एक ऐसी क्रिया चलती रहती है, जिसके कारण उसका शारीरिक अंग अपने-आप परिपक्व हो जाता है। उसके लिए वातावरण से सहायता नहीं लेनी पड़ती है।
  2. शिक्षण और अभ्यास परिपक्वता के विकास में सहायता प्रदान करते हैं। यह सीखने के लिए परिपक्व आधार तैयार करते है और सीखने के द्वारा बालक के व्यवहार में प्रगतिशील परिवर्तन आते हैं।
  • विकास एक अविराम प्रक्रिया है(Development is Continuous Process): विकास एक अविराम प्रक्रिया है, प्राणी के लिए जीवन में यह निरंतर चलती रहती है। उदाहरण के लिए- शारीरिक विकास गर्भावस्था से लेकर परिपक्वावस्था तक निरंतर चलता रहता है परंतु आगे चलकर वह उठने-बैठने, चलने-फिरने और दौड़ने-भागने की क्रियाएँ करने लगता है।

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