विकास की अवधारणा एवं इसका अधिगम से संबंध
विकास को प्रभावित करने वाले कारक
Factors Affecting of Development
बालक के विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं-
- वंशानुक्रम(Heredity):- डिंकमेयर(Dinkmeyer, 1965) के अनुसार, “वंशानुगत कारक वे जन्मजात विशेषताएँ हैं जो बालक में जन्म के समय से ही पायी जाती हैं। प्राणी के विकास में वंशानुगत शक्तियाँ प्रधान तत्व होने के कारण प्राणी के मौलिक स्वभाव और उनके जीवन-चक्र की गति को नियन्त्रित करती हैं।”
- प्राणी का रंग, रूप, लंबाई, अन्य शारीरिक विशेषताएँ, बुद्धि, तर्क, स्मृति तथा अन्य मानसिक योग्यताओं का निर्धारण वंशानुक्रम द्वारा ही होता है।
- माता के रज तथा पिता के वीर्य-कणों में बालक का वंशानुक्रम निहित होता है। गर्भाधान के समय जीन(Genes) भिन्न-भिन्न प्रकार से संयुक्त होते हैं। ये जीन ही वंशानुक्रम के वाहक हैं। अतः एक ही माता-पिता की संतानों में भिन्नता दिखायी देती है, यह भिन्नता का नियम (Laws of Variation) हैं।
- प्रतिगमन के नियम (Law of Regression) के अनुसार, प्रतिभाशाली माता-पिता की संतानें दुर्बल-बुद्धि के भी हो सकते हैं।
2. वातावरण(Environment):- वातावरण में वे सभी बाह्य शक्तियाँ, प्रभाव, परिस्तिथियाँ आदि सम्मिलित हैं, जो प्राणी के व्यवहार, शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित करती हैं। अन्य क्षेत्रों के वातावरण की अपेक्षा बालक के घर का वातावरण उसके विकास को सर्वाधिक महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है।
3. आहार(Nutrition):- माँ का आहार गर्भकालीन अवस्था से लेकर जन्म के उपरांत तक शिशु के विकास को प्रभावित करता है। आहार की मात्रा की अपेक्षा आहार में विद्यमान तत्व बालक के विकास को अधिक महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता हैं।
4.रोग(Disease):- शारीरिक बीमारियाँ भी बालक के शारीरिक और मानसिक विकास को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती हैं। बाल्यावस्था में यदि कोई बालक अधिक दिनों तक बीमार रहता है तो उसका शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता हैं।
5. अंतः रत्रावी ग्रन्थियाँ(Endocrine Glands):- बालक के अंदर पायी जानेवाली ग्रन्थियाों से जो रत्राव निकलते हैं, वे बालक के शारीरिक और मानसिक विकास तथा व्यवहार को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं।
- पैराथॉइराइड ग्रन्थि से जो रत्राव निकलता है उस पर हड्डियों तथा दाँतों का विकास निर्भर करता है। बालक के संवेगात्मक व्यवहार और शांति को भी इस ग्रंथ का रत्राव प्रभावित करता है.
- बालक की लंबाई का संबंध थॉइराइड ग्रन्थि के रत्राव से होता है। पुरुषत्व के लक्षणों (जैसें- ढाढ़ी, मूँछें और पुरुष जैसी आवाजें) तथा स्त्रीत्व के लक्षणों का विकास जनन ग्रंथियों(Gonad Glands) पर निर्भर करता है।
6. बुद्धि(Intelligence):- बालक का बुद्धि भी एक महत्वपूर्ण कारक है, जो बालक के शारीरिक और मानसिक विकास को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। तीव्र बुद्धि वाले बालकों का विकास मंद बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा तीव्र गति से होता हैं। दुर्बल बुद्धि वाले बालकों में बुद्धि का विकास तीव्र बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा मंद गति से होता है तथा विभिन्न विकास-प्रतिमान अपेक्षाकृत अधिक आयु-स्तरों पर पूर्ण होते हैं।
7. यौन(Sex):- यौन-भेदों का भी शारीरिक और मानसिक विकास पर प्रभाव पड़ता है। जन्म के समय लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा कम लंबी उत्पन्न होती हैं परंतु वयःसंधि अवस्था के प्रारंभ होते ही लड़कियों में परिपक्वता के लक्षण लड़कों की अपेक्षा शीघ्र विकसित होने लगता है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का मानसिक विकास भी कुछ पहले पूर्ण हो जाता है।
विकास की विभिन्न अवस्थाएँ
Stages of Development
विभिन्न वैज्ञानिकों ने विकास की अवस्थाओं को अलग-अलग प्रकार से वर्गीकृत किया है। ये अवस्थाएँ इस प्रकार हैं-
- रॉस के अनुसारः विकास की अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-
(क) शैशवावस्था – 1-3 वर्ष
(ख) पूर्व-बाल्यावस्था- 3-6 वर्ष
(ग) उत्तर-बाल्यावस्था- 6-12 वर्ष
(घ) किशोरावस्था- 12-18 वर्ष
- बाल विकास और बाल अध्ययन की दृष्टि से हरलॉक के द्वारा किया गया वर्गीकरण सामान्य माना गया है। इनके अनुसार विकास की अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-
- गर्भावस्था – गर्भाधान से जन्म तक
- शैशवावस्था- जन्म से दो सप्ताह तक
- बचपनावस्था- तीसरे सप्ताह से दो वर्ष तक
- पूर्व-बाल्यावस्था- तीसरे वर्ष से छह वर्ष तक
- उत्तर-बाल्यावस्था- सातवें वर्ष से बारह वर्ष तक
- वयःसंधि- बारह वर्ष से चौदह वर्ष तक
- पूर्व-किशोरावस्था- तेरह से सतरह वर्ष तक
- उत्तर-किशोरावस्था- अठारह से इक्कीस वर्ष तक
- पौढ़ावस्था- इक्कीस से चालीस वर्ष तक
- मध्यावस्था- इकतालीस से साठ वर्ष तक
- वृद्धावस्था- साठ वर्ष के बाद
- इस प्रकार वैज्ञानिकों ने विकास को विभिन्न अवस्थाओं में विभिक्कत किया है।
1. गर्भकालीन अवस्था(Prenatal Period): यह अवस्था गर्भाधान से जन्म के समय तक मानी जाती है। इस अवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- इस अवस्था में विकास की गति अन्य अवस्थाओं से तीव्र होती है।
- समस्त रचना, भार और आकार में वृद्धि तथा आकृतिओं का निर्माण इसी अवस्था में होता है।
- इस अवस्था में होनेवाले परिवर्तन मुख्यतः शारीरिक ही होते हैं।
2. शैशवावस्था(Infancy): जन्म से लेकर 15 दिन की अवस्था को शैशवास्था कहा जाता है। इस अवस्था को ‘समायोजन'(Adjustment) की अवस्था भी कहा जाता है। उसकी उचित देखभाल के द्वारा नये वातावरण के साथ समायोजन माता-पिता द्वारा किया जाता है।
3. बचपनावस्था(Babyhood): यह अवस्था दो सप्ताह से होकर दो वर्ष तक चलती है। यह अवस्था दूसरों पर निर्भर होने की होती है।
संवेगात्मक विकास की दृष्टि से इस अवस्था में बच्चे के भीतर लगभग सभी प्रमुख संवेग जैसे- प्रसन्नता, क्रोध, हर्ष, प्रेम, घृणा आदि विकसित हो जाते हैं। यह अवस्था संवेग-प्रधान होती है।
4. बाल्यावस्था(Childhood): यह अवस्था शारीरिक एवं मानसिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण होती है। अध्ययन की दृष्टि से इसे दो भाग में बाँटा गया है-
(क) पूर्व-बाल्यावस्था(Early Childhood): 2 से 6 वर्ष
(ख) उत्तर-बाल्यावस्था(Late Childhood): 7 से 12 वर्ष
- इस अवस्था में बालकों में ‘जिज्ञासाु’ (Curiosity) प्रवृत्ति अधिक हो जाती है, जिससे वह अपने माता-पिता शिक्षकों से तरह-तरह के सवाल करता है।
- बाल्यावस्था में बालकों में ‘समूह-प्रवृति’ (Gregariousness) का विकास होता है। बच्चे साथियों के साथ रहना और खेलना अधिक पसंद करते हैं।
5. वयःसंधि(Puberty): वयःसंधि बाल्यावस्था और किशोरावस्था को मिलाने में सेतु का कार्य करती है। यह अवस्था बहुत कम समय की होती है लेकिन शारीरिक विकास की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण अवस्था है।
- इस अवस्था की प्रमुख विशेषता है यौन अंगों की परिपक्वता का विकास। बालिकाओं में यह अवस्था सामान्यतः 11 से 13 वर्ष के बीच प्रारंभ हो जाती है और बालकों में 12 से 13 वर्ष के बीच।
6. किशोरावस्था(Adolescence): यह अवस्था 13 वर्ष से प्रारंभ होकर 21 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था को अध्ययन की दृष्टि से दो भागों में बाँटा गया है-
(क) पूर्व-किशोरावस्था(Early Adolescence)- 13-16 वर्ष
(ख) उत्तर-किशौरावस्था(Late Adolescence)- 17-21 वर्ष
- इस अवस्था में बालकों में समस्या की अधिकता, कल्पना की अधिकता और सामाजिक अस्थिरता होती है। इस समय किशोरों को शारीरिक एवं मानसिक समायोजन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। शारीरिक और मानसिक परिवर्तन के फलस्वरूप उनके संवेगात्मक, सामाजिक और नैतिक जीवन का स्वरूप परिवर्तित हो जाता है।
7. प्रौढ़ावस्था(Adulthood): किशोरावस्था के पश्चात 21 से 40 वर्षों की अवस्था प्रौढ़ावस्था कहलाती है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्यों को पाने की कोशिश करता है। यह पारिवारिक जीवन में प्रवेश की अवस्था है।
8. मध्यावस्था(Middle Age): 41 से 60 वर्ष की आयु को मध्यावस्था माना गया है। इस अवस्था में प्राणी के अंदर शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होते हैं। इस समय व्यक्ति सुख-शांति व प्रतिष्ठा से जीने की कामना करता है। सामाजिक संबंधों के प्रति भी मनोवृत्तियाँ दृढ़ हो जाती हैं।
9. वृद्धावस्था(Old Age): जीवन की अंतिम अवस्था वृद्धावस्था है, जो 60 वर्ष से प्रारंभ होकर जीवन के अंत समय तक मानी जाती है। यह अवस्था ‘ह्रास’ की अवस्था होती है। इस अवस्था में शारीरिक व मानसिक क्षमताओं का ह्रास होने लगता है। स्मरण-शक्ति कम होने लगती है।
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